Geological Structure Jharkhand : झारखण्ड की भूगर्भिक संरचना में आर्कियन कालीन चट्टान के साथ – साथ नवीनतम चतुर्थ कल्प काल के जलोढ़ निक्षेपण पाएं जाते हैं । छोटानागपुर पठार का झारखण्ड के धरातलीय स्वरुप के निर्माण में अहम् योगदान है साथ ही यह झारखण्ड का सबसे ऊँचा और बड़ा क्षेत्र भी है, जहाँ अनेक जलप्रपात का निर्माण भी होता है।
Geological Structure Jharkhand :
झारखण्ड की भूगर्भिक संरचना का इतिहास उतना ही प्राचीन है, जितना पृथ्वी के प्रारंभिक भू-पटल का वस्तुतः कालक्रम के आधार पर झारखण्ड में निम्नलिखित वर्गों की चट्टाने पायी जाती |
(i) आर्कियन क्रम
(ii) विन्ध्यन क्रम
(iii) कार्बोनीफेरस क्रम
(iv) पर्मियन-ट्रियासिक क्रम
(v) गोंडवाना क्रम
(vi) सिनोजोइक क्रम
(vii) नवीन निक्षेप
(i) Geological Structure Jharkhand :आर्कियन क्रम:
आर्कियन क्रम की चट्टान भू-पटल की प्राचीनतम चट्टान है। इस अवस्था की चट्टानों को दो भागों में बांटा जाता है। ये है आर्कियन क्रम तथा धारवाड़ क्रम।
- पृथ्वी की तरल अवस्था से ठोस होने के क्रम में जिस चट्टान का निर्माण हुआ, उसे आर्कियन क्रम की चट्टान कहते हैं। इस चट्टान में जीवाश्म नहीं पाये जाते हैं।
- यह चट्टान रूपान्तरित हो गयी है तथा इसका अपरदन भी हुआ है, जिसके कारण यह विच्छिन्न रूप में पायी जाती है। ग्रेनाइट तथा नीस इस समय की प्रमुख चट्टान है।
- आर्कियन क्रम के अपरदन एवं निक्षेपण से धारवाड़ क्रम की चट्टानें निर्मित हुई है। यह भू-पटल की प्रारंभिक निक्षेपित चट्टान है। इस समय जीवों का विकास न होने के कारण इसमें भी जीवाश्म नहीं पाये जाते हैं।
- इस चट्टान का नामकरण कर्नाटक के धारवाड जिल के नाम पर हुआ है, जहां पर सर्वप्रथम इस प्रकार की चट्टानों की खोज हुई थी।
- झारखण्ड में इस क्रम को कोल्हान श्रेणी के नाम से भी जाना जाता है।
- इस प्रकार की चट्टाने मुख्यतः पूर्वी सिंहभूम, प. सिंहभूम एवं सरायकेला-खरसावां में पायी जाती है।
- धारवाड क्रम में धात्विक खनिजों का जमाव बड़े पैमाने पर हुआ है। इन खनिजों में लोहा, ताम्बा ,बॉक्साइट, निकेल, सोना, मैगनीज, चांदी, टीन आदि प्रमुख हैं।
- यह चट्टान अपनी मूल अवस्था में नहीं है, बल्कि अत्यधिक समय गुजर जाने के कारण रूपान्तरित हो गयी है अत: इन्हें पहचानना काफी कठिन कार्य है।
(ii) विन्ध्यन क्रम:
दक्षिण भारत में कडप्पा क्रम की चट्टानों का विकास हुआ, लेकिन झारखण्ड में इसका अवशेष नहीं पाया जाता है। कडप्पा क्रम के बाद भारत में वियन क्रम की चट्टानों का विकास हुआ, जो झारखण्ड में भी पायी जाती हैं।
- विन्ध्यन क्रम के अवशेष उत्तर-पश्चिम में सोन नदी क्षेत्र में पाये जाते हैं, जिसे रोहतास पठार का दक्षिणी छोर कहा जाता है। यहां परतदार चट्टानें क्षैतिज रूप में पायी जाती है, जिसमें बालुकाश्म, शैल, चूना पत्थर आदि प्रमुख हैं।
- इस समय पारसनाथ का भी उत्थान हुआ। पारसनाथ विन्ध्यन पर्वत का ही आगे की ओर निकला हुआ भाग है।
(iii) कार्बोनिफेरस क्रम:
कार्बोनिफेरस युग में गोंडवाना भू-खंड का हिमानीकरण हुआ। उससे संपूर्ण प्रायद्वीप सहित झारखण्ड भी हिमचादरों से ढक गया था। इसके अवशेष नदियों के निचले भागों में पाये जाते हैं।
- झारखण्ड के द.पू. भाग में तालचेर श्रेणी में इसके अवशेष पाये गये हैं। हिमानीकरण का प्रभाव यहां पर स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। समस्त भू-भाग हिमचादरों से ढंका था, जिससे यहां की स्थलाकृति प्रभावित हुई।
- हिमचादरों के हटने के कारण प्रारंभिक सभी भू-आकृतियां प्रायः लोप हो गयीं, क्योंकि एक तो हिमचादर ने पूर्व निर्मित स्थलाकृति को ढक दिया, दूसरे अग्रसर होती हुई हिमचादरों ने पहाड़ियों का अपरदन करके उन्हें समतल बना दिया।
- कार्बोनिफेरस हिमानीकरण के बाद इस भू-भाग में नीरस तरंगित स्थलाकृतियों का निर्माण और बाद में धीरे-धीरे सरिताओं का विकास हुआ।
(iv) पर्मियन ट्रियासिक क्रम :
कार्बोनीफेरस हिमचादर के निवर्तन के बाद छोटानागपुर उच्चभूमि में अपरदन तथा स्थलाकृतिक विकास का एक नया अध्याय प्रारंभ होता है, जिसे पर्मियन-ट्रियासिक युगीन अवस्था कहते हैं।
इस समय उच्च भागों का पर्याप्त अपरदन हुआ। महादेव श्रेणी का निर्माण इसी समय हुआ।
उस समय के अवशेष धालभूम में बंजरी के रूप में पाय जात है।
इस समय झारखण्ड की सबसे महत्वपूर्ण घटना दामोदर तथा सोन नदी में भ्रंश का पड़ना है, जिसने संपूर्ण प्रवाह प्रणाली को प्रभावित किया। यहां भ्रंश पड़ने का मुख्य कारण काराकोरम श्रेणी का उत्थान है।
(v) Geological Structure Jharkhand :गोंडवाना क्रम :
पर्मियन तथा जुरेसिक काल के बीच को गोंडवाना काल कहा जाता है। गोंडवाना काल को कोयला युग के नाम से जाना जाता है। आर्थिक दृष्टिकोण से यह काफी महत्वपूर्ण है।
- सोन तथा दामोदर नदी में भ्रंश के कारण जो पेड़-पौधे थे, वे सभी नीचे धंस गये तथा कालान्तर में वे कोयले के रूप में परिवर्तित हो गये। अतः इन नदियों को घाटियों में कोयले का विस्तृत निक्षेप हुआ संपूर्ण भारत के गोंडवाना क्रम को तीन भागों में बांटा गया है। झारखण्ड में निम्न गोंडवाना तथा मध्य गोंडवाना का निक्षेप पाया जाता है।
- क्रिटेशस युग में यहां दक्कन लावा के समान ही लावा उद्गार हुआ, जिसे राजमहल ट्रैप के नाम से जाना जाता है। यह दुमका, गोड्डा तथा साहेबगंज जिले में विस्तृत है।
झारखंड की भू-विज्ञानिक संरचनात्मक इकाईयां
इकाईयां | भू-विज्ञानिक काल |
दक्षिण पूर्वी सिंहभूम | तृतीया काल |
पलामू, हजारीबाग, कोडरमा, धनबाद, संथाल परगना | गोंडवाना काल |
उत्तरी पलामू | विंध्यन काल |
साहिबगंज, दुमका, गोड्डा, सिंहभूम रांची, हजारीबाग | राजमहल ट्रेप |
धनबाद, गिरिडीह, संथाल परगना, पलामू | आर्कियन काल |
(vi)सिनोजोइक क्रम :
हिमालय निर्माण के पहले संपूर्ण छोटानागपुर का पठार अपरदन क्रिया के द्वारा समप्राय मैदान की स्थिति में आ गया था।
- इन महोदय के अनुसार हिमालय के उत्थान के कारण छोटानागपुर का पठार भी प्रभावित हुआ। हिमालय के तीन क्रमिक उत्थानों के कारण छोटानागपुर के पठार का भी तीन अवस्थाओं में उत्थान हुआ, जिससे छोटानागपुर की नदियां पुनर्जीवित हो गयीं। यह उत्थान हिमालय के उत्थान के साथ ही हुआ, जिसका विवरण इस प्रकार है
(i) प्रथम उत्थान : प्रारंभिक मायोसिन युग में हिमालय का प्रथम उत्थान हुआ। इससे संपूर्ण छोटानागपुर पठार में हलचल हुई लेकिन इस युग की सबसे महत्वपूर्ण घटना पाट क्षेत्र का उत्थान है। उस समय पाट क्षेत्र रांची-हजारीबाग पठार से 1000 फीट ऊपर उठ गया।
(ii)दूसरा उत्थान : जब अंतिम प्लायोसिन युग में हिमालय का दूसरा उत्थान हुआ, उस समय पुनः छोटानागपुर पठार में भू-गर्भिक हलचल हुई। उस समय रांची हजारीबाग पठार का उत्थान 1000 फीट तक हुआ। रांची-हजारीबाग का पठार एक ही पठार है, जिसको दामोदर नदी दो भागों में विभाजित करती है।
- रांची-हजारीबाग पठार के उत्थान के साथ पुनः पाट क्षेत्र का उत्थान हुआ। उस समय पाट क्षेत्र 2000 फीट से अधिक ऊपर उठ गया।
(iii) तीसरा उत्थान: तीसरा उत्थान प्लीस्टोसीन काल में संपन्न हुआ। उस समय रांची हजारीबाग पठार के निचले भागों का उत्थान हुआ।।
- इस उत्थान से पुनः रांची-हजारीबाग पठार तथा पाट क्षेत्र का उत्थान हुआ। इसके परिणाम क्षेत्र 3000 से 3600 फीट तथा रांची-हजारीबाग पठार 1000-2000 फीट तक ऊपर उठा। यहा सबसे ऊंचा पठार पाट क्षेत्र है। वर्तमान में इसकी ऊंचाई 900-1100 मीटर के मध्य है।
- इस पठार के नीचे रांची पठार विस्तृत है, जो 600 मीटर से कम ऊंचा है। निम्न छोटानागपुर का पठार 300 मीटर से अधिक ऊंचा है।
- चौथा भाग राजमहल उच्च भूमि अपरदित मैदानी भू-भाग एवं नदी घाटियों का क्षेत्र है, जो 150 से 300 मीटर ऊंचा है।
- इस उत्थान के परिणाम स्वरूप नदियां पुनर्जीवित हो गयीं, जिससे अपरदन चक्र में तेजी आ गयी। स्वर्णरेखा, कांची, रारू, उत्तरी कोयल तथा शंख नदियों के ऊपरी मार्ग में जल प्रपात, पठार के किनारों पर अधकर्तित विसर्प तथा एक पठार से दूसरे पठार के बीच स्कार्प की स्थिति आदि सभी उत्थान के प्रमाण हैं।
(vii) नवीन निक्षेप
पठारी भाग जो अपरदन के कारण मैदान की स्थिति में आ गया है तथा कहीं कहीं पर इनमें ग्रेनाइट के उच्च भू-भाग पाये जाते हैं, मोंनेडनॉक कहा जाता है।
- अपरदित मैदानी भू-भाग के रूप में जिन क्षेत्रों को चिन्हित किया जाता है, उनमें निचली उत्तरी कोयल बेसिन, देवघर का अपरदित निम्न भू-भाग, अजय बेसिन, पंचपरगना मैदान तथा शंख एवं दक्षिणी कोयल बेसिन क्षेत्र सम्मिलित हैं।
- राजमहल की पहाड़ियां बैसाल्ट से बनी हुई हैं, अपरदित हो गयी जिसके कारण उसका निम्न भाग इसी में सम्मिलित हो गया है।
- समस्त क्षेत्र का वर्तमान स्वरूप नदी अपरदन क्रिया का परिणाम है। यहां पर नदियां सर्पाकार रूप में प्रवाहित होती हैं, जिससे यह पता चलता है कि यह निम्न क्षेत्र अपरदन की अंतिम अवस्था में है।
- स्वर्णरेखा, कांची, रारू तथा अन्य कई नदियां पंचपरगना के मैदान में घुमावदार रूप में प्रवाहित होती हैं, जो समप्राय मैदान की स्थिति को इंगित करती हैं।